चित्त
के पार क्या है ?
अगर
‘मूल स्थिति’ की बात की जाये तो फ़िर चित्त के पार कुछ है ही नहीं ।
जो है, वह सिर्फ़ आपका होना भर है ।
और
बारीकी से कहा जाये तो फ़िर वह जो है - है ।
वहाँ
होना जैसा भी कुछ नहीं है ।
होना
शुरू होते ही चित्त भी हो जाता है ।
मन
बुद्धि चित्त अहम, ये मिल जुल कर इतनी तेजी से क्रियान्वित होते
हैं कि तय होना मुश्किल है कि ये किस कृमानुसार सक्रिय हुये । फ़िर भी किसी भी
इच्छा के उदय होते ही चित्त बनता है ।
या
स्थूल जीव में प्रथम चित्त जाता है ।
क्योंकि
किसी भी हलन चलन हेतु भूमि और दूसरे अन्य अंगों की आवश्यकता होगी ।
इसको
श्रीकृष्ण द्वारा यशोदा को विराट रूप दिखाने से सम्बन्धित घटना से समझा जा सकता है
। जब यशोदा बालकृष्ण के मुख में लोक-लोकान्तर
आदि को देखते हुये फ़िर गोकुल, वासुदेव का घर, और उसी घर में बाल श्रीकृष्ण के सामने बैठी खुद को भी देख रही है ।
और यह
सब सशरीर ही था ।
बात को
समझें ।
आप या
कोई भी कहाँ जा सकता है ?
सभी
भूमियां अज्ञान की हैं । कल्पना ही हैं ।
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पुस्तक - अनमोल ज्ञान सूत्र pdf
लेखक - राजीव कुलश्रेष्ठ
विषय - आत्मज्ञान, सुरति शब्द योग
मूल्य - 150 रु.
प्रष्ठ - 157
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