जिन्दगी और जिन्दगी से परे के अनेक रहस्यमय पहलू अपने आप में समेटे हुये ये लम्बी कहानी (लघु उपन्यास) दरअसल अपने रहस्यमय कथानक की भांति ही, अपने पीछे भी कहीं अज्ञात में, कहानी के अतिरिक्त, एक और ऐसा सच लिये हुये है ।
जो इसी कहानी की भांति ही अत्यन्त रहस्यमय है ?
क्योंकि यह कहानी सिर्फ़ एक कहानी न होकर उन सभी घटनाकृमों का एक माकूल जबाब था । नाटक का अन्त था और पटाक्षेप था । जिसके बारे में सिर्फ़ गिने चुने लोग जानते थे । और वो भी ज्यों का त्यों नहीं जानते थे ।
खैर..कहानी की शैली थोङी अलग, विचित्र सी, दिमाग घुमाने वाली, उलझा कर रख देने वाली है, और सबसे बङी खास बात ये है कि भले ही आप घोर उत्सुकता वश जल्दी से कहानी का अन्त पहले पढ़ लें । मध्य, या बीच बीच में कहीं भी पढ़ लें । जब तक आप पूरी कहानी को गहराई से समझ कर शुरू से अन्त तक नही पढ़ लेते । कहानी समझ ही नहीं सकते ।
और जैसा कि मेरे सभी लेखनों में होता है कि वे सामान्य दुनियावी लेखन की तरह न होकर विशिष्ट विषय और विशेष सामग्री लिये होते हैं ।
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कामवासना
- नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - कैसा अजीब बनाया है ये दुनियाँ का सामाजिक ढांचा, और कैसा अजीब बनाया है देवर भाभी का सम्बन्ध । दरअसल..मेरे दोस्त, ये समाज समाज नहीं, पाखण्डी लोगों का समूह मात्र है । हम ऊपर से कुछ और बरताव करते हैं, हमारे अन्दर कुछ और ही मचल रहा होता है ।
हम सब पाखण्डी हैं, तुम, मैं और सब ।
मेरी भाभी ने मुझे माँ के समान प्यार दिया । मैं पुत्रवत ही उसके सीने से लिपट जाता, उसके ऊपर तक लेट जाता और कहीं भी छू लेता, क्योंकि तब उस स्पर्श में कामवासना नहीं थी । इसलिये मुझे कहीं भी छूने में झिझक नहीं थी और फ़िर वही भाभी कुछ समय बाद मुझे एक स्त्री नजर आने लगी, सिर्फ़ एक भरपूर जवान स्त्री ।
तब मेरे अन्दर का पुत्र लगभग मर गया और उसकी जगह सिर्फ़ पुरुष बचा रह गया । अपनी भाभी के स्तन मुझे अच्छे लगने लगे । चुपके चुपके उन्हें देखना और झिझकते हुये छूने को जी ललचाने लगा । जिस भाभी को मैं कभी गोद में ऊँचा उठा लेता था । भाभी मैं नहीं, मैं नहीं.. कहते कहते उनके सीने से लग जाता, अब उसी भाभी को छूने में एक अजीब सी झिझक होने लगी । इस कामवासना ने हमारे पवित्र माँ, बेटे जैसे प्यार को गन्दगी का कीचङ सा लपेट दिया । लेकिन शायद ये बात सिर्फ़ मेरे अन्दर ही थी, भाभी के अन्दर नहीं । उसे पता भी नहीं था कि मेरी निगाहों में क्या रस पैदा हो गया ? तब तक तो मैं यही सोचता था ।
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कामवासना
Kaamvasna
जो इसी कहानी की भांति ही अत्यन्त रहस्यमय है ?
क्योंकि यह कहानी सिर्फ़ एक कहानी न होकर उन सभी घटनाकृमों का एक माकूल जबाब था । नाटक का अन्त था और पटाक्षेप था । जिसके बारे में सिर्फ़ गिने चुने लोग जानते थे । और वो भी ज्यों का त्यों नहीं जानते थे ।
खैर..कहानी की शैली थोङी अलग, विचित्र सी, दिमाग घुमाने वाली, उलझा कर रख देने वाली है, और सबसे बङी खास बात ये है कि भले ही आप घोर उत्सुकता वश जल्दी से कहानी का अन्त पहले पढ़ लें । मध्य, या बीच बीच में कहीं भी पढ़ लें । जब तक आप पूरी कहानी को गहराई से समझ कर शुरू से अन्त तक नही पढ़ लेते । कहानी समझ ही नहीं सकते ।
और जैसा कि मेरे सभी लेखनों में होता है कि वे सामान्य दुनियावी लेखन की तरह न होकर विशिष्ट विषय और विशेष सामग्री लिये होते हैं ।
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कामवासना
- नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - कैसा अजीब बनाया है ये दुनियाँ का सामाजिक ढांचा, और कैसा अजीब बनाया है देवर भाभी का सम्बन्ध । दरअसल..मेरे दोस्त, ये समाज समाज नहीं, पाखण्डी लोगों का समूह मात्र है । हम ऊपर से कुछ और बरताव करते हैं, हमारे अन्दर कुछ और ही मचल रहा होता है ।
हम सब पाखण्डी हैं, तुम, मैं और सब ।
मेरी भाभी ने मुझे माँ के समान प्यार दिया । मैं पुत्रवत ही उसके सीने से लिपट जाता, उसके ऊपर तक लेट जाता और कहीं भी छू लेता, क्योंकि तब उस स्पर्श में कामवासना नहीं थी । इसलिये मुझे कहीं भी छूने में झिझक नहीं थी और फ़िर वही भाभी कुछ समय बाद मुझे एक स्त्री नजर आने लगी, सिर्फ़ एक भरपूर जवान स्त्री ।
तब मेरे अन्दर का पुत्र लगभग मर गया और उसकी जगह सिर्फ़ पुरुष बचा रह गया । अपनी भाभी के स्तन मुझे अच्छे लगने लगे । चुपके चुपके उन्हें देखना और झिझकते हुये छूने को जी ललचाने लगा । जिस भाभी को मैं कभी गोद में ऊँचा उठा लेता था । भाभी मैं नहीं, मैं नहीं.. कहते कहते उनके सीने से लग जाता, अब उसी भाभी को छूने में एक अजीब सी झिझक होने लगी । इस कामवासना ने हमारे पवित्र माँ, बेटे जैसे प्यार को गन्दगी का कीचङ सा लपेट दिया । लेकिन शायद ये बात सिर्फ़ मेरे अन्दर ही थी, भाभी के अन्दर नहीं । उसे पता भी नहीं था कि मेरी निगाहों में क्या रस पैदा हो गया ? तब तक तो मैं यही सोचता था ।
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