ये हैं राजे जी के विचार - सब जगह ही इतने अंधे बहरे लूले गूंगे यानि विकल अंग मिलते हैं कि एक सही आदमी होने का अनुभव परेशान करता है । मैं साबुत आदमी की बातें किससे करूं ? रंगों की बात हो तो अंधा । शब्दों की बात करूं तो गूंगा । गीत के स्वरों की बात हो तो बहरा । मेरी हर बात पर कोई न कोई नाराज हो ही जाता है । जिन्दगी की फिल्म ही उलझी हुई है । जितनी सीधी कर लें । उतना ही सुकून मिलता है । जिन्दगी के मल्टीप्लेक्स में कई फिल्में एक साथ चलती हैं । और इन्हें अलग अलग समय में चैन से देखने लायक बनाने के लिए दीवारें नहीं होती । एक फिल्म का शोर दूसरी में सुनाई देता है । और समझ में बस ये आता है कि इस जंजाल से निकलने पर ही कोई उम्मीद कही होगी । लेकिन बाहर भी सन्नाटों के सिवा कुछ हाथ नहीं आता । खैर यही मेरी आपकी दुनियां है । आप मेरा हिस्सा हैं । वैसे ही जैसे हाथ पैर आंख कान नाक सिर । तब अलग कैसे रहा जा सकता है । सवाल ही नहीं होता । इसलिये एक दूसरे को समझने के लिए बात तो करनी ही होगी । ब्लाग - हँसना मना है । जे कृष्णमूर्ति इन हिन्दी । योग मार्ग । अजनबी